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२६ मार्च, १९५८
''संगत रूपसे कहा जाता है कि यदि ऐसा विकासात्मक चरमोत्कर्ष अभिप्रेत है और मनुष्यको उसका माध्यम होना है तो केवल कुछ थोड़े-से विशेष रूपसे विकसित मनुष्य नये प्ररूपका निर्माण करेंगे ओर नये जीवनकी ओर बढ़ेंगे; एक बार यह हो जाय तो प्रकृतिके प्रयोजनके लिये आध्यात्मिक अभीप्सा आवश्यक न रह जायेगी और मानवजातिका बाकी हिस्सा उस आध्यात्मिक अभीप्सासे नीचे गिर जायगा और
२८१ अपनी सामान्य स्थितिमें निष्क्रिय पड़ा रहेगा । इसी तरह यह भी युक्ति दी जा सकती है कि यदि जीव पुनर्जन्मके द्वारा विकासके स्तरोंमेंसे होते हुए आध्यात्मिक शिखरकी ओर चढ़ता है तो मानव स्तरको सुरक्षित रखना होगा; इसके बिना 'जडू-तत्व' और अतिमानवके बीचकी सबसे आवश्यक पैडीका अभाव रहेगा । साथ ही यह भी तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिये कि सारी मानवजातिके एक साथ अतिमानस स्तरतक उठ जानेकी जरा-सी भी संभाव्यता या संभावना नहीं है । परंतु यहां जो कुछ कहा जा रहा है वह इतना अधिक क्रांति- कारी और आश्चर्यजनक नहीं है; यहां केवल यह कहा जा रहा है कि जिस समय मानव मन वैकासिक संवेगके एक विशेष स्तर या पहुंच जायगा तो उसमें वह सामर्थ्य आ जायगी कि बह चेतनाके उच्चतर स्तरकी ओर उठने और सत्तामें उसे मूर्त्ति रूप देनेके लिये आगे बढे । इस तरह मूर्त्ति रूप देनेके कारण प्राणीकी प्रकृतिके सामान्य संघटनमें अवश्य ही परिवर्तन आ जायगा; यह परि- वर्तन होगा उसके मानसिक, आवेगात्मक और संवेदनात्मक संघटनमें तथा काफी दूरतक शारीरिक चेतनामें और हमारे प्राण एवं ऊर्जाओंको अनुकूल करनेवाले शरीरमें; परंतु चेतना- का परिवर्तन प्रधान तत्व होगा, प्रारंभिक क्रिया होगी, शारी- रिक परिवर्तन गौण होगा, एक परिणाम होगा । जब अंतरात्माकी ज्योति-शिखा, चैत्य दीप्ति हृदय और मनमें बल- शाली हो जायगी और प्रकृति तैयार हो जायगी तो चेतनाका यह तत्वान्तरण मनुष्यके लिये हमेशा संभव रहेगा । आध्यात्मिक अभीप्सा मनुष्यमें सहज रूपसे मौजूद है; कारण, पशुका विपरीत, उसे अपूर्णता और परिसीमाका ज्ञान रहता है और वह यह अनुभव करता है कि जो कुछ वह अब है उससे परेकी कोई वस्तु उसे प्राप्त करनी है; मानवजातिमें कभी भी अपनेसे परे जानेकी प्रेरणाके लुप्त होनेकी संभावना नहीं है । मनुष्यकी मनोमय भूमिका सर्वदा वहां रहेगी, पुनर्जन्मकी श्रेणी-परंपरामे केवल एक श्रेणीके रूपमें नहीं, अपितु आध्यात्मिक और अतिमानस अवस्थाकी ओर आरोहणके लिये खुली सीढीके रूपमें ।',
( 'लाइफ डिवाइन', पृ० ८४२-४३)
२८२ यह तो स्पष्ट ही है कि अपने-आपको और अपने जीवनको देखनेकी यह मानसिक क्षमता ही मनुष्यको असाधारण विशिष्टता प्रदान करती है । पशु सहज भावसे यंत्रवत् जीता है, यदि वह ध्यान देता भी है कि वह कैसे जीता है तो वह काफी नगण्य और महत्वहीन-से स्तरपर होगा, अतः वह शान्ति- सें रहता है और कोई चिन्ता नहीं करता । यहांतक कि यदि कोई पशु किसी दुर्घटना या बीमारीसे पीड़ित हों तो वह पीड़ा भी कम-से-कम हो जाती है क्योंकि वह इसे नहीं देरवता, इसे अपनी चेतनामें और भविष्यमें प्रक्षिप्त नही करता, बीमारी या दुर्घटनाके बारेमें विचार नहीं गढ़ता रहता ।
मनुष्यके साथ शुरू हो गयी है यह चिरंतन चिन्ता कि क्या होनेवाला है और यही दुश्चिता उसकी यातनाका एकमात्र नहीं तो प्रधान कारण तो है ही । वस्तुपरक चेतनाके साथ शुरू हुई दुश्चिता, दर्दभरी कल्पनाएं, चिन्ता, यंत्रणा, भावी अनिष्टोकी आशंका जिनके फलस्वरूप अधिकांश मनुष्य -- सबसे कम सचेतन नहीं वरन् सर्वाधिक सचेतन मनुष्य -- निरंतर संताप- मे जीते है । मनुष्य इतना सचेतन है कि वह उदासीन नहीं रह सकता, पर इतना सचेतन भी नहीं है कि यह जान सकें कि क्या होगा । सचमुच, मूल किये बिना यह कहा जा सकता है कि धरतीके सारे प्राणियोंमे मनुष्य ही सर्वाधिक दयनीय है । मनुष्य ऐसे रहनेका आदी हो गया है क्योंकि रोगकी यह अवस्था उसे अपने पूर्वजोंसे विरासतमें मिली है, पर यह है सचमुच दयनीय अवस्था । उच्चतर स्तरतक उठनेकी इस आध्यात्मिक शक्तिद्वारा और पशुकी अचेतनाको आध्यात्मिक परा-चेतनाद्वारा स्थानान्तरित करके ही सत्तामें न सिर्फ जीवनके उद्देश्यको देखनेकी और प्रयासकी पराकाष्ठाको पहलेसे जान लेनेकी क्षमता आती है वरन् उच्चतर आध्यात्मिक शक्तिमें स्पष्टदर्शी विश्वास भी आता है जिसके प्रति व्यक्ति पूर्ण आत्म- दान कर सकता है, उसके भरोसे अपने-आपको छोड़ सकता है, अपने जीवन और भविष्यको उसे सौंप सकता है और इस तरह सब चिन्ताओंसे मुक्त हों सकता है ।
म्पष्ट ही मनुष्यके लिये यह असंभव है कि वह फिरसे. पशु-स्तरपर जा गिरे और अबतक उपलब्ध चेतनाको गंवा दे : अतः उसके लिये एक ही उपाय रह जाता है, जिस अवस्थामें वह है, जिसे मैं दयनीय अवस्था कहती हू, उससे निकलनेके लिये, और एक उच्चतर अवस्थातक जहां चिन्ताका स्थान ले लेता है निर्भरतापूर्ण आत्म-दान और अकाशमयी परिसमाप्तिका विश्वास, उठ आनेके लिये एक ही रास्ता है -- चेतनाका परिवर्तन ।
सच पूछो तो इस अवस्थासे अधिक दयनीय अवस्था और कोई नहीं कि तुम्हारे ऊपर उस अस्तित्वका दायित्व हो जिसकी चाबी तुम्हारे पास नहीं है,
२८३ यानी, वह सूत्र तुम्हारे हाथमें नहीं है जो राह दिखा सके और समस्याएं सुलझा सकें । पशु अपने आगे कोई समस्या नहीं रखता : वह बस जीता है । इसकी सहज-वृत्ति इसे प्रवृत्त करती है, यह उस सामूहिक चेतनापर मरोसा करता है जिसमें जन्मजात ज्ञान है और इससे ऊंची है; परंतु यह यंत्रवत् और स्वाभाविक रूपसे होता है, इसे उसके लिये संकल्प नही करना पड़ता, उसे जीवनमें लानेके लिये प्रयास नहीं करना पड़ता, यह बहुत नैसर्गिक ढंगसे वैसा होता है, और चूंकि इसपर अपने जीवनका दायित्व नहीं है, यह अपने लिये चिन्ताएं नहीं खड़ी करता । मनुष्यके साथ जनमती है अपने-आपपर निर्भर रहनेकी भावना और क्योंकि उसके पास आवश्यक ज्ञान नहीं होता, इसलिये साथ ही शुरू हों जाती है शाश्वत यंत्रणा । इस यंत्रणाका अंत तभी हो सकता है जब व्यक्ति अपनेसे उच्चतर, उस शक्तिके प्रति सर्वांग समर्पण कर दे, जिसे वह पूरी तरह अपने-आपको सौंप सकें, अपनी चिंताएं उसके हाथमें थमा सके और अपने जीवनको चलाने और सब कुछ व्यवस्थित करनेका भार उसपर छोड़ सके ।
जब किसीके पास आवश्यक ज्ञान ही न हो तो भला समस्या कैसे सुलझ सकती है? दुर्भाग्य तो यह है कि मनुष्य मानता है कि उसे अपने जीवनकी सब समस्याएं सुलझानी हैं, पर उसके पास अपेक्षित ज्ञान नहीं है । यहीं है उसके कष्टोंका स्रोत और मूल । वही चिरंतन प्रश्न : ''मुझे क्या करना चाहिये? ''... इसके साथ एक और, इससे भी अधिक तीक्ष्ण प्रश्न जुड़ जाता है : ''क्या होनेवाला है? '' और साथ ही न्यूनाधिक, उत्तर देनेकी अक्षमता।
इसीलिये अब आध्यात्मिक साधनाएं पूरा भार समर्पित कर देनेकी और उच्चतर, तत्वपर भरोसा रखनेकी आवश्यकतासे आरंभ होती है । अन्यथा शांति असंभव है ।
और फिर मी, मनुष्यको चेतना दी गयी है ताकि बह प्रगति करे, जो नही जानता उसे खोज निकाले, जो वह अभीतक नहीं है उसमें विकसित हो सके; और इस प्रकार कहा जा सकता है कि निश्चल और स्थिर शांतिकी अवस्थासे ऊंची एक अवस्था है : यह है एक ऐसी सर्वांगपूर्ण आस्था जो प्रगतिके संकल्पको बनाये रखने और सब दुश्चिन्ताओंसे, फल ओर परिणामकी चितासे मुक्तिद्वारा प्रगतिके प्रयासको सुरक्षित रखनेके लिये पर्याप्त हो । यही उन पद्धतियोंसे अगला चरण है जो ''नीरवता- वादी'' कहलाती हैं, जो सब क्रिया-कलापके त्यागपर तथा एक निश्चलता और आंतरिक शांतिमें डुबकी लगानेपर आधारित हैं, जिन्होंने सारे जीवन का परित्याग कर दिया क्योंकि एकदम अचानक उन्हें यह अनुभव हुआ कि शांतिके बिना आंतरिक सिद्धि नहीं मिल सकती, ओर स्वभावतया मनमें यही आया कि शांति तबतक नही मिल सकती जबतक मनुष्य बाह्य परिवेशमें रहता है, उस चितातुर अवस्थामें रहता है जिसमें समस्या तो खड़ी कर दी जाती है, पर समाधान नहीं किया जाता क्योंकि वैसा कर सकनेके लिये उसके पास ज्ञान नहीं होता ।
इससे अगला चरण है समस्याका सामना करना, लेकिन उस परम शक्तिमें अखंड विश्वासकी स्थिरता। और निश्चयताके साथ, जो जानती है और तुमसे काम करा सकती है । और तब काम छोड़ देनेके बजाय उच्चतर शांतिमें रहकर मनुष्य कर्म कर सकता है जो सशक्त और सक्रिय होता है ।
यही है वह चीज जिसे जीवनमें भागवत हस्तक्षेपका नया पहलू, जीवन- मे दिव्य शक्तियोंके हस्तक्षेपका नया रूप, आध्यात्मिक सिद्धिका नया पक्ष कहा जा सकता है ।
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